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जीवित्पुत्रिका व्रत

Published On : August 14, 2022  |  Author : Astrologer Pt Umesh Chandra Pant

जीवित्पुत्रिका व्रत का महत्व

यह व्रत हिन्दू धर्म में प्रत्येक घर में संतान की रक्षा एवं सुरक्षा हेतु किया जाता है। जिसके पुण्य प्रभाव से व्रती साधक को अत्यंत पुण्य राशि मिलती है। और उसके कुल धर्म एवं संतान की रक्षा एवं सुरक्षा सुनिश्चित हो पाती है। ऐसे कोई संकट या घटना हो जिसमें पुत्र एवं संतान तथा कुल धर्म की सुरक्षा हेतु संकट बन रहा हो या फिर उनके प्राणों में संकट हो ऐसे में व्यक्तियों को यह जीवित्पुत्रिका व्रत का अनुसरण करना चाहिए। व्रत एवं पुण्यकर्मों का बड़ा ही पुण्य प्रताप होता है। जिससे व्यक्ति भयानक कष्टों से छूट जाता है। इस व्रत का पालन आश्विनी कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को किया जाता है। प्रदोषकाल व्यापिनी अष्टमी तिथि में नवमी युक्त तिथि को ग्रहण करने का विधान इस व्रत में होता है। हालांकि कहीं-कहीं सप्तमी व्यापनी अष्टमी को ग्रहण करने का भी निर्देश प्राप्त होता है। किन्तु अधिक पुष्ट एवं व्यापक पक्ष उदयकालिक तिथि यानी अष्टमी में इस व्रत का पालन करने का विधान होता है। इस व्रत का पूजन विधान प्रदोष काल में किया जाता है। जिसके प्रभाव से व्यक्ति को संतान यानी पुत्र की रक्षा हो पाती है। इस व्रत में जीवमूर्त वाहन की पूजा करने का विधान होता है। क्योंकि इन्हीं के कारण नाग वंश की सुरक्षा हो पाई थी। तब से इस उत्सव को बड़े विधि-विधान से स्त्री जातिकाओं के द्वारा अपने संतान की रक्षा हेतु इस व्रत का पालन किया जाता है।

जीवित्पुत्रिका व्रत का पूजा विधान

इस व्रत के पूर्व संध्या यानी सप्तमी तिथि में ही व्रती साधक को अपने नियम एवं शुद्धता को और पुष्ट तथा मजबूत बनाना चाहिये। तथा तामसिक आहारों के सेवन को छोड़ देना चाहिये। और भगवान का स्मरण करते हुये अपने व्रत की पूर्व संध्या में उत्साह पूर्वक व्रत की आंशिक तैयारी शुरू कर देना चाहिये। तथा व्रत वाले दिन सूर्योदय से पहले ब्रह्म मुहूर्त में उठकर शौचादिक एवं स्नानादिक सभी शुद्धि क्रियाओं को करने के बाद सम्पूर्ण व्रत से संबंधित सभी सामाग्री को एकत्रित करके पूजा स्थल में रख लें। और पूजा स्थल को गाय के गोबर से लीप लें और वहाँ एक तालाब नुमा बड़ा सा गढ्ढ़ा बनाकर उसके आस-पास कुश, बड़ तथा पाकड़ के वृक्षों की टहनियों को स्थापित करें। और फिर शालिवाहन राजा के पुत्र जो कि धर्म एवं पुण्य कामों में अग्रणी है की प्रतिमा को कुशा से बना ले और उसे अष्टदल कमल बनाकर प्रतिष्ठित करें। या फिर जल एवं मिट्टी में भी उनकी मूर्ति को रखकर दें। तथा किसी कम्बल के आसन में बैठकर आचमनादि क्रियाओं को करने के बाद विधि पूर्वक कलश एवं दीप की स्थापना करें। तथा पूजा का आरम्भ करते हुये गणपित स्मरण करे और भगवान शिव एवं पार्वती की पूजा करें तथा फिर जीवमूर्त वाहन राजा की पूजा अर्चना विधि विधान से करें। उन्हें, स्नान करायें तथा रूई को पीले एवं लाल रंग में रंगकर उन्हे अर्पित करें। तथा अक्षत पुष्प, धूप, दीप नैवेद्य और विविध प्रकार के फल एंव मिष्ठान आदि को अर्पित करें। और विधि विधान से पूजा को सम्पन्न करते हुये उसे जीवमूर्तवाहन राजा को अर्पित करें दें। तथा भक्ति भाव से विनम्रता पूर्वक अपने किसी भी भूल-चूक की क्षमा प्रार्थना करें।

जीवित्पुत्रिका व्रत कथाः

इस व्रत की कथा भगवान शिव माँ भवानी पार्वती को कैलाश पर्वत पर सुनाते हुये कहते हैं। जो संक्षिप्त रूप में इस प्रकार हैः- प्राचीनकाल में शालिवाहन नाम के बड़े ही प्रतापी राजा हुये जिनके पुत्र का नाम जीवमूर्तवाहन था वह बड़े ही धर्मज्ञ एवं परोपकारी थे। जिससे वह पिता के द्वारा दिये हुये राज्य का कार्यभार अपने भाइयों को सौंप कर पिता के साथ वन की ओर चल दिये। तथा इनके पिता ने इनका विवाह संस्कार वहीं कर दिया। एक दिन की बात है जब जीवमूर्तवाहन जंगल में कहीं जा रहे थे। तभी उन्हें एक रोती एवं दुःखी वृद्ध स्त्री को देखा। उसके रोने एवं दुःखी होने के कारण को जीवमूर्तवाहन राजा ने जानना चाहा तो उस वृद्धा ने बड़े ही करूण स्वर में अपना परिचय नागवंश की स्त्री के रूप में दिया और बताया कि महाराज मेरे एक ही पुत्र संतान है। किन्तु प्रतिज्ञा के कारण पक्षीराज गरूड़ को उसे आज बलि देने का दिन है। महाराज मेरे एक ही पुत्र है यदि प्रतिज्ञा के अनुसार मै उसे गरूड़ की बलि देती हूँ, तो मै आज से ही पुत्र विहीन हो जाऊॅगी। उस वृद्ध नाग माता की बात सुनकर राजा जीवमूर्तवाहन कहने लगे कि हे! माता आप डरे नहीं मै आपके पुत्र की रक्षा करने का आपको वचन देता हूँ। इस वचन के कारण राजा जीवमूर्तवाहन ने उस शंखचूड़ से बलिदान का कपड़ा लेकर स्वयं अपने को लपेट कर बलिदान स्थल पर लेट गया इतने में गरूड़ बड़ी तीव्रता से वहाँ आकर लाल रंग के कपड़े में लिपटे हुये जीवमूर्तवाहन राजा को अपने पंजों में पकड़ कर पर्वत शिला पर जा बैठे। किन्तु जब प्राणों में संकट के समय भी राजा ने उफ तक नहीं किया जिससे पक्षीराज गरूड़ बड़े ही विस्मय में पड़ गये और पूछने लगे आप कौन हैं अपना परिचय दें। इस पर राजा ने पूरी बात बताई। जिससे उनके इस परोपकारी कदम से गरूड़ प्रसन्न हुये और उन्हें वरदान दिया कि आज से किसी नागवंश की बलि इस प्रकार नहीं ली जायेगी। भगवान गरूड़ के इस वरदान एवं राजा जीवमूर्तवाहन के प्रयासों से नाग वंश की रक्षा हो पायी है। यह बात सम्पूर्ण लोगों में जंगल की आग की तरह फैल गयी। जिससे लोग तब से जीवित्पुत्रिका व्रत का पालन विशेष रूप से स्त्रियां निरन्तर करने लगी।

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