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धूमावती जयंती

Published On : April 24, 2024  |  Author : Astrologer Pt Umesh Chandra Pant

धूमावती जयंती एवं उसका महत्व

हिन्दू धर्म में देवी एवं देवताओं की परम तथा अद्वितीय लीलायें इस संसार के लिये ही नहीं बल्कि त्रिकोली के लिये जो अज्ञान के अंधकार में डूब चुके हैं। उनके लिये परम प्रकाश की तरह है। जिसके प्रकट हेाने या फिर समझने से व्यक्ति के जीवन से अंधकार का धूम मिट जाता है। माता धूमावती जयंती इसी उपलक्ष्य में यानी उनके प्रकट होने के उत्सव में मनाई जाती है। अनेक स्थिति एवं परिस्थिति से निपटने के लिये हिन्दू धर्म के देवी एवं देवताओं ने अनेकों रूपों को धारण किया चाहे वह राक्षसों के संहार के लिये हो या फिर सज्जनों के उद्धार के लिये हो। माँ धूमावती दश विद्याओं में प्रमुख एवं दशवी देवी है। यानी एक ही देवी के यह रूप है। जैसे पानी गर्म होकर वाष्प एवं ठण्डा होने पर बादल तथा अधिक ठण्डा होने पर जम जाता है। इसी प्रकार माँ भगवती देवी पार्वती ही दश विद्याओं की अधिष्ठात्री देवी है। इनकी जन्म जयन्ती प्रति वर्ष ज्येष्ठ माह की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को मनाई जाती है। इनके जन्म जयन्ती के अवसर पर देवी धूमावती के स्त्रोत एवं मंत्रों का जाप तथा इनकी विधि पूर्वक पूजा अर्चना की जाती है। ऐसे सभी भक्त गण जो दुःखों से दूर होना चाहते है। इनकी पूजा उपासना करते हैं। जिससे इनके पूजन एवं व्रत के प्रभाव से व्यक्ति के दुःख एवं रोग तथा पीड़ाओं का अंत हो जाता है। माता का यह रूप अत्यंत उग्र तथा भयंकर प्रतीत होता है। जिससे सभी राक्षस आदि भयभीत होते है। माता के इस रूप की उपासना तंत्र मंत्र एवं सिद्धि के लिये अत्यंत उपयोगी तथा हितकारी है। साथ ही भक्त जनों को वांछित फलों को देने वाला होता है। हालांकि सौभाग्यवती स्त्रियों को इनकी पूजा नहीं करनी चाहिये। बल्कि दूर से इनके दर्शन कर लेना चहिये। माता का यह रूप धूम यानी धुये की तरह है। कहा जाता है। जब पिता दक्ष के यज्ञ में अपनी इच्छा से इन्होंने अपने शरीर को भस्म किया था। तो इनके इस रूप का अवतरण हुआ। माता का यह रूप साधकों की सभी इच्छाओं को पूरा करने वाला है। तथा धन संतान आदि के सुखों को देने वाली माता के पूजन का इस धूमावती जयंती पर अत्यंत महत्व है।

धूमावती जयंती पर माँ के पूजन की विधि

इस जन्म जयन्ती एवं अन्य अवसरों पर माता की पूजा अर्चना करने वाले साधकों को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये। तथा तामसिक आहारों के सेवन को त्याग देना चाहिये। तथा व्रत एवं पूजन की सम्पूर्ण सामाग्री को एकत्रित करके अपने पूजा स्थल पर रख लें। और पूजा वाले दिन में सूर्योदय से पहले उठकर सम्पूर्ण शौचादिक स्नानादिक क्रियाओं को सम्पूर्ण करने के पश्चात् आसन में बैठकर भगवान के नाम का स्मरण करते हुये आत्मशुद्धि करें। तथा मांगलिक श्लोंको को बोलते हुये अपने पूजन एवं व्रत का संकल्प लें। और माता की विधि से पूजा करें। तथा अपनी मनोकामना  को उनके सम्मुख रखें। माता की पूजा जन्म जयन्ती के अतिरिक्त चैमासे एवं गुप्तनवरात्रों में भी होती है। पूजा सम्पन्न होने पर उसे माता को अर्पित करके क्षमा प्रार्थना करें।

धूमावती कथा

माता धूमावती के बारे में प्रमुख रूप से कुछ कथायें इस प्रकार है। जो अधिक प्रचलित एवं प्रचारित है। एक समय की बात है। कि दक्ष प्रजापति ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया जिसमें सभी देवताओं को निमंत्रित किया गया था। किन्तु अपनी बेटी पार्वती एवं दामाद शिव को नहीं बुलाया। किन्तु पिता का घर समझकर वहाँ पार्वती पहुंची भी किन्तु दक्ष ने वह स्नेह नहीं दिया तथा पंचदेव समूहों में शिव के होने के पश्चात् भी वह अहंकार में उन्हें कोई पूजा भाग नहीं दिया। जिससे भवानी पार्वती ने शिव का ऐसा अपमान नहीं सह सकीं। जिससे उन्होंने अपनी इच्छा से उस यज्ञ में अपने शरीर को ही भस्म कर दिया था। उनके शरीर के भस्म होने से जो धुआ निकला उससे माँ धूमवती के रूप का अवतरण हुआ है। जिससे यह अत्यंत उदास एवं धवल रूप में बिखरे हुये केशों में अति भयंकर प्रतीत होती है। तब से आज तक माता धूमावती जयंती बड़े ही विधान से मनाई जाती है।

धूमावती जयंती एवं अन्य तथ्य

माता धूमावती श्वेत वस्त्रों को धारण करती है। किन्तु धूम्रवर्ण होने के कारण इन्हें काले एवं धू्रम वर्ण के कपड़े तथा काले तिल आदि भी अर्पित किये जाते हैं। जिससे माँ भगवती प्रसन्न होती है। माता का यह रूप अत्याचारियों के संहार के लिये हुआ है। ऐसे लोग यानी जो धर्म एवं देवताओं के विरूद्ध होकर पापाचरण करते हैं। तथा राक्षसी व्रत्तियों की संहार करने वाली माता असीम शक्तियों से युक्त होती है। यह माता देवी कि लीला मात्र है। वह किसी भी रूप में किसी भी संकट एवं राक्षस को मारने की क्षमताओं से युक्त होती हैं। यह श्वेत रूप धारण करती है। तथा इनका वाहन कौवा होता है। सृष्टि की कलह होने से माता के इस रूप को कलह प्रिया भी कहा जाता है। महान ऋषि दुर्वासा भी माता की शक्ति एवं कृपा के कारण ही इतने प्रभाव शाली हुये हैं। इसी प्रकार भृगु एवं परशुराम ने भी माता की कृपा करूणा के कारण ही इतनी असीम शक्तिायों एवं प्रभाव को अर्जित किया था। जिससे सम्पूर्ण जगत उन्हें जानता एवं पूजता है। यह अपने हाथ में सूप को धारण करती है। तथा भंयकर एवं क्रूर होने का यह रूप राक्षसों के विनाश के लिये हैं। किन्तु यह रूप भक्तों का परम कल्याण साधक है।

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