हिन्दी

देवशयनी एकादशी

Published On : July 2, 2022  |  Author : Astrologer Pt Umesh Chandra Pant

देवशयनी एकादशी एवं भगवान विष्णु 

यह पर्व श्री हरि विष्णू के विश्राम का पर्व है। जो सम्पूर्ण भारत में बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इसे श्री हरि के शयनोत्सव के रूप में मनाये जाने के कारण हरिशयनी या फिर देवशयनी एकादशी कहा जाता है। एकादशी का व्रत सभी व्रतों से श्रेष्ठ होता है। इस पर्व के प्रधान देवता भगवान श्री हरि विष्णू हैं। इस तिथि यानी एकादशी में शयन के कारण यह एकादशी हरिशयनी के नाम से इस जगत् में विख्यात हुई है। इसी तिथि से श्री हरि के शयन का क्रम चालू होता है। जो हरिप्रबोधनी एकादशी के दिन समाप्त हो जाता है। यह तिथि प्रति वर्ष आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को बड़ी धूम-धाम के साथ मनाई जाती है। इस व्रत के साथ अनेक महत्वपूर्ण कथानक एवं मान्यतायें जुड़ी हुई है। जिससे धार्मिक जगत् के मानव में कई परिवर्तन देखने को प्राप्त होते हैं। इससे जहाँ श्रद्धावान भक्त प्रभावित होते हैं। वहीं सामान्य जीवन के काम काज और व्यवहारों में बहुत बढ़ा परिवर्तन होता है। श्री हरि जब तक निन्द्रा में होते हैं तब तक कई साधू संत एवं सम्प्रदायों के लोग नाना तरह के व्रत नियमों का पालन करते हैं और हरि भक्ति में विशेष रूप से लीन हो जाते हैं। इसी शयन के पहले एक दिन यानी दशमी से ही इसकी नाना विधि तैयारी होने लगती है। इस शयनोत्सव के साथ जहाँ कई महत्वपूर्ण धार्मिक कामों का विश्राम हो जाता है। वहीं कई महत्वपूर्ण व्रत एवं नियमों का प्रारम्भ होता है। इसी तिथि से चातुर्यमास का प्रारम्भ भी होता है। इस वर्ष यह तिथि आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि में यानी 01 जुलाई सन् 2020 दिन बुधवार को मनाई जायेगी।

देवशयनी एकादशी कैसे है खास

हमारे व्रत पर्वों में यह बेहद खास तिथि है। क्योंकि ऋतु चक्र में अनेकों व्रत पर्व का आगम होता रहता है। किन्तु जो सरसता एवं सुगन्ध ऋतुराज वसंत में है वह और कहीं नहीं इसी प्रकार हमारे शास्त्र मे एकादशी को सभी तीर्थ एवं दान पुण्यों से बढ़कर माना जाता है। जिस प्रकार वसंत शिशर आदि के दोषों को समाप्त करने की क्षमता रखता है। उसी प्रकार यह एकादशी का व्रत दान एवं पूजन आदि नियम यदि कोई श्रद्धा विश्वास के साथ करता है। तो उससे उत्पन्न पुण्य श्रद्धालु भक्तों के अनेक पापों का शमन कर देते हैं। तथा उसे जीवन में प्रगति एवं सुख शांति, वैभव प्राप्त होता है। उसके पितरो को नर्क से छुटकारा प्राप्त होता है। जो व्यक्ति स्त्री हो या फिर पुरूष यदि वह एकादशी के दिन अन्न आदि खाता है। तो उसे मातृ, पितृ, भ्रातृ आदि के हत्या के समान महापातक लगता है। एकादशी व्रत काम्य एवं नित्य व्रतों की श्रेणी मे आता है। इसलिये इसे न करने से यह दोष होते हैं। इसके व्रत के प्रभाव से स्वर्ग के सुख मोक्ष, आयु आरोग्यता और धन, धान्य समृद्धि की वृद्धि होती है। इस संबंध में स्कन्द, विष्णु एवं वराह आदि पुराणों मे विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है। कि किस प्रकार और किसे एकादशी आदि व्रतों का पालन करना चाहिये इसका उल्लेख है। अर्थात् देवशयनी एकादशी हमारे व्रतों में अपने पुण्य प्रभावों एवं पवित्र शक्ति का संचार करने से बेहद खास बनी हुई हैं।

हरिशयनी एकादशी में कौन से शुभ काम नहीं होते

भगवान श्री हरि के शयन करने पर अधिकांशतः नवीन गृह निर्माण एवं उसमें प्रवेश तथा नव वधू का प्रवेश और शादी विवाह तथा शयन के लिये बनने वाले शयन कक्ष या फिर पलंग आदि तथा श्री हरि के निमित्त कोई बड़े यज्ञ  भी प्रायः नहीं किये जाते हैं। इस प्रकार और मांगलिक कार्य जैसे मुण्डन, छेदन, तथा देव प्रतिष्ठा जनेऊ यानी यज्ञोपतीत संस्कार, दीक्षा ग्रहण आदि मांगलिक कार्य श्री हरि शयनी एकादशी से श्री हरिप्रबोध एकादशी तक नहीं किये जाते है। इनकी पुनः शुरूआत भगवान श्री हरि के जागने यानी देव प्रबोधनी एकादशी के दिन से शुरू होते हैं। क्योंकि वर्षा ऋतु के कारण जहाँ कई तरह की बीमारियां और नकारात्मक शक्तियां भगवान के सोने पर अपना असर बनाये हुये रहती है। जिससे शरीर में रोग और पीड़ायें उत्पन्न होने की स्थिति भी आ जाती है। ऐसी नकारात्मकता से बचने के लिये कठिन व्रत नियम और संयम ही एक मात्र उपाय है। जिसे साधु लोग तथा सद्गृहस्थी का पालन करने तमाम श्रद्धालुओं द्वारा नियम एवं संयम का पालन किया जाता है। क्योंकि हरिप्रबोध एकादशी तक भगवान विष्णु क्षीर सागर में अनंत शैया पर सोते है। अतः शुभ एवं मांगलिक कामों को नहीं किया जाता है। किन्तु ध्यान रहें अन्य देवी और देवताओं एवं अवतारों से संबंधित व्रत आदि उसी तरह चलते रहते हैं। और उनका उत्सव एवं मांगलिक कार्य जो विहित होते किये जाते हैं। यह शास्त्र विहित होते हैं। जिनका महत्व कई गुना होता है। वह सब करने का विशेष महत्व होता है। यह सब पुण्यदायक माने जाते हैं।

हरिशयनी एकादशी व्रत एवं पूजा का विधान

इस व्रत का पालने करने से एक दिन पूर्व ही यानी दशमी तिथि को ही संयमित रहने एवं ब्रह्मचर्य का पालन करने का विधान होता है। तथा नमक एवं तहसुन, प्याज आदि मसूर की दाल एवं चावल, शहद आदि को त्याग देना चाहिये। तथा एकादशी तिथि के दिन ब्रह्म मुहुर्त में उठकर शौचादि क्रियाओं से निवृत्त होकर श्री गणेश एवं माँ गौरी को प्रणाम करें और श्री हरि भगवान विष्णू का ध्यान करते हुये व्रत का संकल्प लें कि हे! प्रभु मै श्रद्धा भक्ति एवं विश्वास के साथ आपके व्रत का पालन करने जा रहा हॅू। मुझे इतनी शक्ति देना जिससे मैं व्रत का विधि पूर्वक पालन कर सकू और मिथ्या आडम्बरों एवं झूठ तथा अन्य पाप कर्मों से सदा दूर रहते हुये जीवन में सदैव प्रगति प्राप्त कर अपने घर परिवार का कल्याण करू तथा देश व समाज की भलाई के लिये योग दान दे सकू और आपकी परम भक्ति प्राप्त करू इत्यादि शुभ एवं मांगलिक कामों का संकल्प लें। तथा विधि पूर्वक भगवान की षोडशोपचार पूजा किसी विद्वान ब्रह्मण से भक्ति पूर्वक कराये या फिर करें। उन्हें सुगंधित जल से दूध, हदी, घी, शहद आदि एवं पंचामृत से स्नान करायें। तथा उन्हें स्थान के बाद पीत वस्त्राभूषणों एवं नाना विधि रत्न एवं मणियों से सजायें भगवान के प्रिय पुष्प एवं नाना प्रकार के व्यंजन उन्हें खिलायें तथा शुद्ध भावना पूर्वक रखें और उन्हें आचमन करायें और प्रार्थना करें कि मेरे प्रभु अन्र्तयामी आप इस प्रसाद को ग्रहण करें और हमारे अपराधों को क्षमा करें आदि। इस प्रकार जहा भी आपने मंदिर बना रखा हो या फिर जिस विग्रह को सुलाने जा रहे हैं। उसके लिये सुन्दर पालना या चारपाई आदि में अन्नत शैया की कल्पना करते हुये उन्हें सफेद रंग की चादर से ढ़क दें। तथा उनके लिये सुन्दर कोमल तकिये आदि की व्यवस्था करके भक्ति पूर्वक वैदिक मंत्रों के द्वारा शयन करायें। तथा भगवान के नामों को भक्ति पूर्वक स्मरण करते रहें। तथा व्रत के नियमों को पालन करते हुये अगले दिन द्वादशी तिथि में शौचादि से निवृत्त होकर विधपूर्वक पारण करें। जिसे व्रत खोलना या फिर अन्न ग्रहण करना कहा जाता है।

हरिशयनी एकादशी में त्यागने योग्य वस्तुयें

श्री हरि शयनी एकादशी के दिन से भगवान विष्णु के जागने तक यानी चार माह पर्यन्त श्रद्धालु भक्तों को भक्ति भावना का ध्यान रखते हुये गुड़, तेल, तथा फूलों का प्रयोग जो अपने हेतु करते हैं तथा शहद आदि इसी प्रकार सावन के महीने में पत्तों का साग, एवं भाद्रपद में दही और अश्विनी मास में दूध तथा कार्तिक में दाल का सेवन नहीं करना चाहिये। तथा स्वतः सोने के लिये चारपाई का प्रयोग नहीं करना चाहिये। इस हेतु भूमि या फिर तखत का प्रयोग करना चाहिये। जो भूमि सभी तरह से सुरक्षित हो। वहीं शयन करें। इस प्रकार संयमित एवं नियमित रहते हुये जो भक्ति पूर्वक चार माह भगवान का ध्यान रखते हुये इस ऋतुचर्या का प्रयोग करता है। उसके कई रोग व पीड़ायें सहज ही समाप्त हो जाते है। और श्री हरि की कृपा प्राप्त होती है। तथा शरीर स्वस्थ होता है

हरिशयनी एकादशी एवं पौराणिक मान्यताये

श्री हरि शयनी एकादशी के पर्व के बारे में कई मान्यतायें हैं। जैसे संयमित रहना। तथा भूमि पर शयन करना। संतोष करना। गुड़ एवं तेल का त्याग भगवान नाम का स्मरण आदि करना विशेष शुभ होता है। भगवान के शयन करने के कारण कई शुभ कार्य विवाह एवं उपनयन आदि कार्यों नहीं करने की मान्यतायें प्रचलित है। इस एकादशी के बारें पुराणों में कई तरह के कथा प्रसंग प्राप्त होते हैं। जिसमें राजा बलि की कथा है जो संक्षित रूप में इस प्रकार है। जब भगवान राजाबलि के यहा वामन रूप धारण कर पहुंचे और याचक के रूप मे तीन पग भूमि माँगी तो राजा बलि ने अहंकार में आकर कह दिया कि जहाँ चाहों वहा तीन पग भूमि ले लो, किन्तु जब भगवान ने एक पग से पूरी पृथ्वी एवं दूसरे पग से स्वर्ग को नाप लिया और तीसरा पग जब बढ़ाया तो राजा बलि के अहंकार का अंत हो गया और शर्म के मारे अपना सिर नीचे रख दिया। और इसे श्री हरि के शक्ति का भान हुआ और अपने इस अंहकार से उठकर भक्ति पूर्वक भगवान के चरणों में गिर गया तो भगवान ने उसे वरदान माँगने के लिये कहा। जिससे भगवान को अपने दिये हुये वरदान के कारण चार माह राजा बलि के यहाँ पहरेदारी करनी होती है। दूसरी कथा ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार है। जिसमे योगनिन्द्रा देवी ने श्री हरि विष्णू को अपने कठोर तप के द्वारा प्रसन्न किया तो भगवान ने उसे वरदान मांगने के लिये कहा जिस पर निन्द्रा देवी को भगवान ने अपनी आंखों में चार माह आश्रय देने की बात स्वीकार की, तभी से श्री हरि को शयन में चार माह के लिये जाना पड़ता है। एक अन्य कथा प्रसंग है जिसमें मान्धाता राजा के राज्य में सूखा होने पर जब प्रजा त्राही त्राही करने तो वह महिर्षि अंगिरा ऋषि से इसका उपाय पूछा तो उन्होंने उन्हें देवशयनी एकादशी का व्रत करने तथा उसके नियम संयम का पालन करने का आदेश दिया जिससे उत्साहित होकर राजा ने इस व्रत का पालन किया परिणामतः अनुकूल वर्षा हुई जिससे धन धान्य समृद्धि की प्राप्ति उन्हें हुई।

यह भी अवश्य पढ़ें: सत्यनारायण व्रत और निर्जला एकादशी

Blog Category

Trending Blog

Recent Blog


TRUSTED SINCE 2000

Trusted Since 2000

MILLIONS OF HAPPY CUSTOMERS

Millions Of Happy Customers

USERS FROM WORLDWIDE

Users From Worldwide

EFFECTIVE SOLUTIONS

Effective Solutions

PRIVACY GURANTEED

Privacy Guaranteed

SAFE SECURE

Safe Secure

© Copyright of PavitraJyotish.com (PHS Pvt. Ltd.) 2025