आद्यगुरू शंकराचार्य जयन्ती
Published On : April 6, 2024 | Author : Astrologer Pt Umesh Chandra Pant
आद्यगुरू शंकराचार्य जयन्ती और उसका महत्व
आद्यगुरू शंकराचार्य जयन्ती: भगवान आद्यगुरू शंकराचार्य हिन्दू धर्म के प्राण एवं सर्वोत्कृष्ट स्तम्भ है। जिन्होंने इस धर्म को पुनः व्यापक आधार दिया था। इसके दो पंखों को पुनः मजबूत एवं पुष्ट किया एक पंख जो द्वैतवाद की तरफ दूसरा अद्वैतवाद की तरफ प्रसारित होता है। इन दोनों के सहारे उड़कर मनुष्य रूपी जीव यानी पक्षी अपने गनतब्य को प्राप्त कर सकता है। यानी परमब्रह्म में विलीन होकर अपने अंतिम लक्ष्य मोक्ष को अर्जित कर सकता है। अन्यथा उसे पुनः पुनः भटकना पड़ेगा। द्वैतवाद की पृष्ठभूमि में श्रद्धा भक्ति एवं विश्वास को निर्मित करके ही अद्वैत के विशालकाय आकाश में अपने मन को लगा सकेगा। ऐसा मत भगवान शंकराचार्य जी था। यानी साकार मूर्ति पूजा एवं पंजदेव पूजा आदि को उन्होंने भुक्ति एवं मुक्ति का मार्ग बताया था। तथा अनेक टीकायें भी लिखी है। उनके द्वारा श्री गणेश एवं शिव, पार्वती, नंदी, कर्तिकेय, दुर्गा आदि देवी देवताओं की स्तुति एवं वन्दनायें रचित की गयी है। भगवान शंकराचार्य के संबंध में शास्त्रों में प्रमाण मिलते है। कि वह साक्षात् भगवान शिव के अवतार थे। क्योंकि भगवान शिव ने कलियुग के प्रथम चरण में अपने चार शिष्यों को धरती पर धर्म की स्थापना हेतु अवतरित किया था। और खुद ही अपने अंश को शंकराचार्य के रूप में अवतरित किया था। यह संदर्भ भविष्योत्तर पुराण में प्राप्त होता है। इनका जन्म 508 ई. पू. केरल में कालपी यानी काषल नामक ग्राम में होने के कई प्रमाण प्राप्त होते हैं। भगवान शंकराचार्य के जन्म हेतु इनके माता-पिता ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिये कठोर तपस्या किया था। इनके तप से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने अपने अंश को प्रकट करने के लिये इन्हे वरदान दिया था। पिता का नाम शिवगुरू एवं माता सुभद्रा ने इस महान पुत्र रत्न को अर्जित किया था। भगवान शंकर की कृपा उत्पन्न होने के कारण इनका नाम शंकर रख दिया गया था। शंकराचार्य जयन्ती: आद्यगुरू के जन्म दिवस पर अभिवादन।
आद्यगुरू शंकराचार्य की शिक्षा एवं संन्यास
पुत्र जन्म के बाद ही उनके माता-पिता उनके लालन पालन में लगे हुये थे। बालक शंकर जन्म से बड़ा ही प्रतिभा सम्पन्न थे। जिससे इन्होंने सम्पूर्ण वेद एवं वेदांगों में अपने बाल्यकाल यानी लभभग 7 वर्ष की आयु में ही पारांगत हो गये थे। तथा आठ वर्ष की आयु में संन्यास को धारण कर लिया था। जब यह तीन वर्ष के थे। तो इनके पिता का देहान्त हो गया था। अपने माता-पिता की एकलौती संतान जिसे माता दाम्पत्य यानी गृहस्थ जीवन के बंधनों से बाधना चाहती थी। किन्तु बचपन से ही उनका रूझान ईश्वर भक्ति एवं ब्रह्म ज्ञान की तरफ थी। जिससे वह शादी विवाह के झंझटों से दूर रहने में भलाई समझते थे। किन्तु इस हेतु वह अपने माता की आज्ञा चाहते थे। माता उन्हें साधारण तरीके से नहीं आज्ञा देने वाली हैं। अतः उन्होंने मात्र 8 वर्ष की अवस्था में बड़ी विवित्र माया अपने माता के सम्मुख ही रच दी और नदी में स्नान करते वक्त उनका पैर माया रूपी मगरमच्छ पकड़कर हठात् खींचने लगा। जिससे बालक शंकर के प्राणों में संकट आ गया और उनकी माता घबड़ा गयी। तब बालक शंकर ने कहा कि हे माता! मेरा पैर मगरमच्छ खींच रहा है। यदि आप मुझे संयास लेने की आज्ञा दे तो यह मेरा पैर छोड़ देगा अन्यथा मुझे खा जायेगा। इससे घबड़ाकर माँ उन्हें संयास लेने की आज्ञा दे दी और बालक शंकरचार्य ने संयास की दीक्षा ग्रहण कर ली। आद्यगुरू शंकराचार्य जयन्ती: महान आध्यात्मिक विद्वान की स्मृति में अभिवादन।
श्री आद्यगुरू शंकराचार्य की तीर्थ यात्रा एवं रचनाये
इन्होने कई बड़ी धार्मिक यात्रायें पैदल ही की थी। जिसमें काशी से बद्रीनाथ और हिमालय सहित सम्पूर्ण भारत की यात्रायें शामिल हैं। तथा कुशलता पूर्वक पुनः आकर इन्होंने धर्म की नींव को और पुष्ट किया था। जिससे हिन्दू धर्म मे धार्मिकता की लहर दौड़ गयी। उन्होंने अपने ज्ञान के द्वारा इस सत्य को लोगों के सामने प्रकट किया था। कि ब्रह्म नित्यं शाश्वत एवं सत्य है। यह जगत उसकी माया है। यानी यह असत्य है। उनके द्वारा विवेक चूड़ामणि एवं सौंन्दर्य लहरी जैसे श्रेष्ठतम ग्रंथों की रचना की गई थी। तथा भाष्य की भी लिखा। आद्यगुरू शंकराचार्य जयन्ती: आध्यात्मिक दीक्षा का महत्वपूर्ण समारोह।
श्री आद्यगुरू शंकारचार्य का शास्त्रार्थ
इन्होंने काशी सहित देश एवं विदेश के विद्वानों से शास्त्रार्थ किया और अपने सत्य एवं सही तर्क के कारण उन्हें पराजित किया और विद्वानों की सर्वोत्कृष्ट श्रेणी में शामिल हो गये तथा वह विद्वानों के सर्वमान्य गुरू हो गये। तथा उस समय में जारी शैव एवं शाक्त के झगड़ों को भी समाप्त किया। जिससे ईश्वर के तत्व को समझते हुये लोगों ने दोनों को ही उस ब्रह्म का तत्व एवं असीम शक्ति माना। इस प्रकार भगवान आदि गुरू शंकराचार्य ने सम्पूर्ण देश को ही नहीं बल्कि धरती में धार्मिक, समाजिक एकाता को बढ़ाया था। इन्होंने मण्डन मिश्र को जो कि बिहार राज्य के थे। उन्हें शास्त्रार्थ में पराजित किया था। किन्तु मण्डन मिश्र की पत्नी द्वारा रति एवं काम आदि के प्रश्नों का जवाब नहीं दे पाये। इसलिये उन्हें परकाया प्रवेश करके तथा उसका ज्ञान अर्जित करके उसके प्रश्नों को सटीक जबाव दिया। और विजयी हुये थे। इसी प्रकार इन्होंने बौद्ध धर्म को शास्त्रार्थ में पराजित किया था। तथा उसे धर्म नहीं माना। जिससे कुछ बौद्ध इनसे ईर्षा करने लगे। इन्होंने सम्पूर्ण भारत में उत्तर से दक्षिण एवं पूर्व से पश्चिम चारों दिशाओं में मठ एवं मंदिरों का निर्माण किया था। जिसमें बदरिकाश्रम श्रृंगेरीपीठ द्वारिका शारदा पीठ तथा पुरी में गोर्वधन पीठ की स्थापना थी। उनका मत था कि ईश्वर एक ही समय में सगुण एवं निर्गुण दोनों ही स्वरूपों में विद्यामान रहता है। चारों युगों में कलयुग में व्यक्ति मेधा एवं प्रज्ञा तथा आयु सबसे कमजोर एवं क्षीण होती है। तथा धर्म का पतन जिसके कारण होता रहता है। आद्यगुरू शंकाराचार्य निर्मित पीठों में आज जो भी बैठते हैं उन्हें शंकराचार्य की उपाधि प्राप्त होती है।
श्री आद्यगुरू शंकराचार्य द्वारा निर्धन ब्राह्मण को धनवान कर देना
एक बार की बात भगवान शंकराचार्य अपने संन्यास धर्म के अनुसार भिक्षाटन के लिये निकले हुये थे। किन्तु दैवयोग से एक ऐसे ब्राह्मण के घर भिक्षा मांगने जा पहुंचे जहाँ उसके पास उन्हें भिक्षा में देने के लिये अन्न ही नहीं था। किन्तु फिर भी उस ब्राह्णी ने एक आंवला के फल को लेकर उन्हें दिया और घर में अपनी गरीबी के कारण करूण विलाप करने लगी। जिससे उन्हें दया आ गयी और उसके घर में सोने के आंवलों का ढे़र लगा ऐसी जनश्रुती एवं कथायें भगवान शंकराचार्य के विषय में कही जाती है। भगवान शंकराचार्य के संबंध में बड़ा ही विस्तृत साहित्य एवं घटनायें है। चाहे वह उनके परिवार की हो या फिर धर्म एवं ईश्वर की हो विस्तार भय से उन्हें यहाँ नहीं दिया जा रहा है।
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