हिन्दी

संतान सप्‍तमी व्रत

Published On : July 16, 2022  |  Author : Astrologer Pt Umesh Chandra Pant

संतान सप्तमी व्रत एवं उसका महत्व

यह व्रत दाम्पत्य जीवन के आंगन को सुखद बनाने के लिये प्रति वर्ष भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को किया जाता है। जिससे उनके संतान की अल्पमृत्यु से रक्षा हो सके। वह जीवन पथ पर आगे बढ़ते हुये अपने संतान की सुख सम्पत्ति एवं दीर्घायु को और पुष्ट कर सके। ऐसी कामना से इस व्रत को प्रतिवर्ष बड़े ही हर्षोल्लास के साथ किया जाता है। जिसके प्रभाव से लोगों को संतान सुख की प्राप्ति होती है। इस व्रत का ऐसा पुण्य एवं दिव्य प्रभाव है। जिसके प्रभाव अल्पायु वाली संतान को भी दीर्घायु प्राप्त हो जाती है। तथा ऐसे लोग जो कि पुत्र एवं पौत्र की इच्छा रखते हैं। उन्हें कोई पुत्र एवं संतान नहीं या फिर होकर मर जाती है। ऐसे स्त्री पुरूषों के लिये यह व्रत वरदान स्वरूप है, इस व्रत का विधि-विधान से पालन करने में सभी संतान संबंधी कामना सिद्धि होती है। तथा संतान संबंधी परेशानियों को दूर करने के लिये यह व्रत विशेष रूप से स्त्रियों में प्रचलित है। क्योंकि इस व्रत को करने से संतान की सुरक्षा सुनिश्चित होती है तथा संतान के उज्जवल भविष्य के निर्माण के रास्ते खुलते हैं। संतान को सुखद रखने तथा उसे प्राप्त करने के लक्ष्यों को पूरा करने के कारण इस व्रत का नाम संतान सप्तमी पड़ा है। इस व्रत में भगवान शिव एवं माता पार्वती तथा विष्णू एवं भगवती लक्ष्मी की पूजा का विधान होता है। जिसमें सभी व्रती साधक एवं साधिकायें प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में उठकर अपने नित्य कर्म से फुरसत होकर भगवान की पूजा एवं अर्चना करती हैं। यह हिन्दू धर्म का बड़ा ही अनूठा एवं सुखद व्रत है। जो वांछित कामनाओं को देने वाला है।

संतान सप्तमी व्रत एवं पूजा विधान

संतान सप्‍तमी व्रत का पालन करने वाली महिलायें एवं पुरूषों को चाहिये कि वह व्रत के एक दिन पहले ही यानी षष्ठी तिथि में अपने आचार-विचार एवं पवित्रता को अधिक शुद्ध बनायें। तथा ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करते हुये भगवान का स्मरण करें। और व्रत के लिये जरूरी तैयारियों को करें। व्रत वाले दिन में समस्त शुद्धि क्रियाओं का पालन करते हुये व्रत एवं पूजन की समस्त सामाग्री को एकत्रित करके अपने पूजा स्थल में रख लें। और पूर्व या उत्तर की तरफ मुंह करके आसन में बैठे और भगवान का स्मरण करते हुये तीन बार आचमन करे तथा आत्मशुद्धि करते हुये चौक पूरे यानी अष्टदल कमल बनाये और कलश दीपक आदि को रखकर उन्हें मंत्रों के द्वारा स्थापित करके उनकी पूजा अर्चना करें और इस व्रत के प्रधान देवता भगवान शिव एवं भगवती पार्वती तथा विष्णू एवं लक्ष्मी जी का ध्यान करते हुये उन्हें स्नान करायें वस्त्र चंदन, चावल पुष्प, धूप दीप नवैद्य अर्पित करें। उन्हें मधुर पकवान एवं खीर पूड़ी, गुड़ एवं नारियल जटा वाल अर्पित करे। तथा रक्षा सूत्र को संकल्प लेकर भगवान शिव को बांधे या फिर उसे भगवान के चरणों में अर्पित कर दें और फिर अपनी कामना कहते हुये उसे उठा लें। तथा संतान की दीर्घायु एवं सफलता हेतु अपने संतान के हाथों और अपने हाथों में उसे बांध लें। और खुद ही गुड़ एवं पूड़ी तथा खीर का भोजन करें। तथा अपने पूजा को भगवान को अर्पित करें और उन्हें फिर प्रणाम करें।

संतान सप्तमी

इस व्रत के साधक एवं साधिकायें विधि पूर्वक भगवान की पूजा अर्चना कर लें या फिर किसी पूजा में निपुण ब्रह्मण द्वारा विधि विधान से पूजा करवायें। तथा फिर भक्त युक्त चित्त द्वारा कथा सुने इस कथा के संबंध कुछ संक्षिप्त अंश इस प्रकार है। जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से बताया था। इस संदर्भ में वह बताते हैं कि श्रीकृष्ण के माता पिता यानी देवकी और वसुदेव कंस द्वारा मार दिये गये अपने संतान से बहुत ही दुःखी थे तो लोमश ऋषि ने उन्हें इस दुःख से छुटकारा पाने के लिये संतान सप्तमी के व्रत को करने को कथा था। जिससे उन्होंने विधि पूर्वक इस व्रत का पालन किया था। इसी प्रकार अयोध्या के राजा नहुष एवं उसकी पत्नी तथा उसकी पत्नी की सखी रूपमती की कथा है। वह दोनों जब सरयू नदी में स्नान के लिये पहुंची तो उन्होनें इस संतान सप्तमी के व्रत को होते हुये देखा जिससे वह बहुत ही खुश हुई और उस कथा को सुना तथा पुत्र प्राप्ति के लिये इस व्रत के पालन का निश्चिय कर लिया। किन्तु दुर्भाग्य से वह अपने इस निश्चिय को घर आकर भूल गई और मृत्यु के उपरान्त दोनों यानी रानी को वानरी तथा उसकी सहेली को मुर्गी की योनि में जन्म लेना पड़ा किन्तु यह बात ब्राह्मणी को स्मरण हो आई और वह दोनों पुनः ही मनुष्य योनि में रानी तथा ब्राह्मणी बनी जिससे रानी की सहेली ने तो व्रत का पालन किया जिससे उसे कई पुत्र प्राप्त हुये किन्तु रानी ने व्रत का पालन नहीं किया जिससे उसे कोई संतान नहीं हुई। जिससे वह अपने सहेली से जलने लगी और उसके पुत्रों को मारने का षयंत्र करने लगी। किन्तु व्रत का पुण्य प्रभाव ऐसा था कि रानी के लाखों प्रयासों के बाद भी उसके पुत्र नहीं मरें वह सदा कुशल एवं सुरक्षित रहें। तभी से इस व्रत का पालन महिलायें अपने पुत्रों के सुखद जीवन एवं सुरक्षा के लिये करती हैं। तथा निः संतान दम्पत्ति को संतान की प्राप्ति का बड़ा ही सीधा एवं सरल उपाय है। जिसके प्रभाव एवं पुण्यफल के द्वारा लोगों को संतान का सुख प्राप्त होता है। अतः यह व्रत संतान के लिये अति उपयोगी एवं महत्वपूर्ण है। जिससे इसे संतान सप्तमी का व्रत कहा जाता है।

यह भी पढ़ना न भूलें: वट सावित्री व्रत और अनंग त्रयोदशी व्रत

© Copyright of PavitraJyotish.com (PHS Pvt. Ltd.) 2024