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देवोत्थान एकादशी

Published On : August 20, 2023  |  Author : Astrologer Pt Umesh Chandra Pant

श्री हरिबोधनी या देवोत्थान एकादशी

यह पर्व श्री हरि विष्णू की भक्ति का सर्वोत्कृष्ट सोपान है। जो भक्ति पथ का बहुत ही प्रमुख अवसर होता है। इस अवसर के आते ही जहाँ भक्तों को श्री हरि विष्णू की भक्ति का एक बड़ा ही सुहाना अवसर प्राप्त होता है। वहीं धार्मिक कामों और शादी विवाहों के संस्कार पुनः शुरू हो जाते हैं। क्योंकि चार माह पर्यन्त सोये हुये देवता एवं श्री हरि विष्णू पुनः जागते है। भगवान देव शयनी एकादशी जो कि आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष में होती है। को शयन में चले जाते हैं। इस संदर्भ में कहा गया है। कि भगवान विष्णू सहित सभी देवता शयन को चले जाते है। क्योंकि वर्षा ऋतु के आगमन से चारों तरफ घने बादल और वर्षा का वेग बड़ा ही तीव्र होता है। जो धरती की उत्पादकता को लगातार बढ़ा रही होती है। और सामान्य कृषक तथा अन्य लोग जो कि एक स्थान से दूसरे स्थानों में जाने में कठिनाई एवं बाढ़ आदि से प्रभावित होते हैं। तथा कई तरह के व्यापारिक एवं धार्मिक कार्य भगवान के सोने के कारण प्रभावित होते रहते हैं। उनके पुनः चालू होने का यह एक विशिष्ट पर्व होता है। क्योंकि कार्तिक माह की शुक्ल एकादशी को ही देवोत्थानी एकादशी कहते हैं। इसे आम लोगों के मध्य बोल-चाल की भाषा में विशेष रूप से देव उठावन (देवउठनी) यानी देव उठनी एकादशी कहा जाता है। क्योंकि जो चार माहों में शुभ कामों के आयोजनों को विश्राम दिया गया था, उन्हें पुनः इस तिथि में शुरू किया जाता है। जिससे इसे देव प्रबोधनी या श्री हरि प्रबोधनी एकादशी भी कहा जाता है। क्योंकि संसार के संचालक श्री हरि के उठने के कारण जहाँ पुनः धर्म, कर्म, तप, दीक्षा,यज्ञ ज्ञान एवं प्रतिष्ठा आदि कार्य शुरू हो जाते हैं। वहीं विवाह योग्य हुये युवक एवं युवतियों के लिये विवाह की मधुर शहनाइयों की धुन भी सुनाई देने लगती है। और चार माह से रूके हुये विवाह कार्य पुनः शुरू हो जाते हैं। तथा चातुर्मास्य व्रत के जो नियम आदि होते है, उन्हें सम्पन्न किया जाता है। इसी तिथि से भीष्म पंचक प्रारम्भ होते हैं। तथा श्री हरि विष्णू की शादी तुलसी के पौधे से किये जाने का विधान हैं। जिसे भक्त बड़ी ही श्रद्धा के साथ करते हैं। तुलसी विवाह का विधान कई जन्मों के पापों को नष्ट करने वाला होता है। प्रति वर्ष की भाँति इस वर्ष तुलसी विवाह का पर्व कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की ग्यारहवीं तिथि यानी एकादशी तिथि, दिन बुधवार 25 नवम्बर 2020 को बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाया जायेगा। क्योंकि तुलसी का पौधा अपने औषधीय गुणों के कारण जहाँ प्रत्येक आंगन की शोभा है वहीं इसका आध्यात्मिक महत्व भी है। यह भगवान को अधिक प्रिय है। जिससे भगवान को तुलसी दल चढ़ाने का विधान होता है। बिना तुलसी दल के श्री हरि की पूजा सम्पन्न नहीं होती है।

हरिबोधनी एकादशी है दुख नाशनी

मनुष्य जीवन पथ पर चलते हुये कई बार हतासा एवं निराशा से घिर जाता है। क्योंकि अज्ञान रूपी तम के कारण अनेक प्रकार की दुःख एवं पीड़ायें उत्पन्न होती रहती हैं। इन दुःख एवं पीड़ाओं के भंवर से बचने का सटीक और सरल तथा व्यवहारिक उपाय धर्म शास्त्रों मे वर्णित है। चाहे वह व्यक्ति के पाप कर्म हो या फिर धन का अभाव हो या फिर संतान प्राप्त करने की बातें हो चाहे दुःख कोई भी हो वह श्री हरि विष्णू की  कृपा से ठीक अंधकार की तरह नष्ट हो जाता है। जैसे प्रकाश के समक्ष अंधकार की सत्ता नहीं रहती है। उसी प्रकार श्री हरि विष्णू के समक्ष दुःखों का नाश हो जाता है। इस संबंध में   प्राचीन ऋषि व मनीषियों ने बड़े सुस्पष्ट निर्देश दिये हैं। कि कोई भी यदि भक्तिभाव से भगवान की अर्चना करता है। तो उसके पुण्यों का उदय होता है। ऐसे ही नैमिषारण्य (तीर्थ) में शौनकादि अट्ठासी हजार ऋषि एकत्रित होकर वेद, पुराणों के ज्ञाता श्री सूतजी से दुःख एवं पापों के निवारण का उपाय पूछा कि हे! महातप इस संसार में नाना प्रकार के दुःख संताप, दरिद्रता में घिरे हुये तथा प्रेत जैसे महाभयानक योनि में पडे़ पितरगणों और मानवों के नाना प्रकार के कष्टों को दूर करने को कोई विधान कहिये तो सर्वशास्त्र के ज्ञाता श्री सूतजी ने उन्हें एकादशी के व्रत के पालन का उपाय बताया था। इसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण की निकटता को पाकर धर्मराज युधिष्ठिर और अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण से एकादशी के व्रत के संबंध में पूछा था। कि हे प्रभु! कौन सा ऐसा उपाय या व्रत है जिसके करने से पाप एवं दुःख, दरिद्रता, पे्रत योनि आदि जैसे कष्टों से छुटकारा मिलता है। इस संबंध में भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें एकादशी व्रत को विधि विधान पूर्वक करने को कहा था। यानी देव उठानी एकादशी व्रत दुःख एवं पातकों का हरण करने वाला है।

हरिबोधनी या देवोत्थानी एकादशी व्रत एवं पूजा कैसे करें

इस व्रत में एक दिन पहले यानी दशमी तिथि को ही नियम एवं संयम का पालन करते हुये ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये तथा तामसिक आहार एवं मंदिरा आदि के सेवन से बचना चाहिये। तथा मन में श्रद्धा विश्वास पूर्वक ईश्वर से कामना करें कि हे प्रभु! मेरे तन एवं मन को निर्मलता की पावन छाया मिले। फिर दूसरे दिन यानी एकादशी तिथि को ब्रह्म मुहुर्त में उठकर पहले अपने हथेलियों का दर्शन करें। इसके पश्चात् शौचादि एवं स्नानादि क्रियाओं से फुरसत होकर भगवान श्री हरि विष्णू के पूजन की सामाग्री को एकत्रित कर लें। तथा पूर्व या फिर उत्तर की तरफ मुंह करके किसी आसान में बैठे और आचमन तीन बार करें। और भगवान का स्मरण करते हुये अपने ऊपर तथा पूजन सामाग्री में भी पवित्री करण का मंत्र बोलते हुये जल छिड़के। यदि मंत्र नहीं आता हो तो श्री हरि का ध्यान करते हुये जल छिड़क लें और प्रार्थना करे कि प्रभु आपकी कृपा से मेरी आन्तरिक और बाहरी दोनों प्रकार से शुद्धि हो जाय इस प्रकार असान को पवित्र करें, दीपक जलायें तथा व्रत एवं पूजन का सकाम संकल्प लें और भगवान की पूजा षोड़शोपचार विधि से करें या फिर किसी ब्राहण से करवायें। अपने पूजा को भक्ति पूर्वक श्री हरि को समर्पित कर दें।

हरिबोधनी या देव उठनी एकादशी में देवताओ को उठाने की विधि

इस हरिप्रबोधनी एकादशी को कई नामो से जाना जाता है। जैसे-देव उठनी या देवउठानी एवं देवत्थानी और श्री हरि बोधनी या प्रबोधनी एकादशी के नाम से जाना एवं पूजा जाता है। यह एकादशी प्रतिवर्ष कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी को होती है। इस एकादशी तिथि में लोग रात्रि एवं दिन में पूजा करके समस्त सोये हुये देवताओं एवं उनके अधिपति देवता श्री हरि विष्णू को विधि विधान पूर्वक पूजा करके जगाते है। भगवान को जगाने के लिये विविध प्रकार के मांगलिक वाद्य यंत्रो का प्रयोग किया जाता। जिसमें घड़ियाल, घड़ीघण्ट, शंख, ढ़ोल, नगाढ़ा, तबला, झाँझ शहनाई आदि विविध प्रकार के मांगलिक वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता है। तथा उन्हें बजाते हुये भगवान से प्रार्थना कि जाती है, कि हे प्रभु जगत के पालनहार आप कृपा करके अपने समस्त देवताओं सहित जागें और संसार के पालन के कार्य को सम्पन्न करें। या फिर उन्हें उत्तिष्ठ केशवं उतिष्ठ गरूड़ध्वजः।। कहते हुये जगाये क्योंकि आपके सोने से सम्पूर्ण जगत सोये हुये के समान ही है। तथा सभी धार्मिक कार्य रूके हुये हैं। इस प्रकार भगवान से निवेदन करते हुये उन्हें सुगधिन्त जल अर्पण करें। तथा नाना विधि उनकी पूजा अर्चना करें। क्योंकि यह कार्य तड़के यानी ब्रह्म मुहुर्त में ही होने लगते हैं। और लोग श्री हरि विष्णू को जगाने लगते हैं। यह पर्व यानी भगवान को जगाने का कार्य सम्पूर्ण भारत में बड़ी श्रद्धा विश्वास के साथ होता है। जिससे ग्रामीण अंचल में सद्गृहस्थ का पालन करने वाली गृहिणियां भी अपने स्तर पर भगवान को जगाने के लिये एक नया सूप खरीदती है और उसे गन्ने या ज्वार के पौधे का डंड़ा बनाकर बजाती है। और प्रार्थना करती हैं, कि–श्री हरि ईश्वर जागें। ददिद्रता भागे। ईश्वर आये और दरिद्रता जाये। यानी भगवान के आगमन पर दुःख दरिद्र दूर हो जाते हैं। अतः हे प्रभु! अब उठ बैठिये और हम सभी भक्तजनों सहित संसार का कल्याण करें। इस संदर्भ में स्वामी नित्यानंद सरस्वती जी कहते है कि वेद शास्त्रों के अनुसार इस संसार में सूर्य सबसे बड़े देवता हैं क्योंकि सूर्य को जगत् की आत्मा कहा गया है। श्री हरि विष्णू एवं इन्द्रादि देवताओं के नाम श्री सूर्य देव के पर्याय हैं। क्योंकि इस ऋतुमती धरा में जब वर्षा ऋतु के समय घने काले बादलों की स्थिति होती हैं, तो ऐसे मे श्री सूर्य नारायण के दर्शन नहीं होते हैं, इसलिये वैदिक ऋषियों ने माना हैं कि सूर्य यानी श्री हरि शयन में हैं। और वर्षा समाप्त होते ही श्री हरि विष्णू को जगाना होता हैं। या फिर अपने आपको बदलते हुये मौसम के अनुसार हर प्रकार से सक्रिय करते हुये आत्मा में भगवान को जगाना होता है। यह आत्म संयम और साधना की बेला होती है। जिससे बीमारियों आदि के प्रकोप से बचा जा सकें।

हरिबोधनी का महत्व

इस एकादशी का जहाँ धार्मिक दृष्टि से महत्व है। वहीं समाजिक एवं स्वास्थ्य की दृष्टि से भी बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। क्योंकि बदलते हुये मौसम की वजह से जहाँ कई प्रकार की बीमारियों की स्थिति सेहत में उभरने लगती हैं। वहीं अपने खान-पान एवं आचार विचार के संदर्भ में बहुत ही ध्यान देने की जरूरत बनी हुई रहती हैं। इन दिनों भक्त श्रद्धालु यानी साधू संन्यासी लोगों को श्री हरि के भजन एवं कीर्तन तथा धर्म के प्रति जागरूक करने की पे्ररणा देते हुये चार माहों तक एक ही स्थान में ठहरे हुये होते हैं। इस व्रत का समापन भी इसी एकादशी से हो जाता है। इसी दिन भगवान की शादी तुलसी के पौधे से कई मंन्दिरों एवं श्रद्धालु भक्तों के द्वारा निजी तौर पर घर में भी की जाती है। जो यह सार्वजनिक जीवन मे यह बताता है। कि अब विवाह योग्य युवक एवं युवतियों के शादी का अवसर आ चुका है। अतः यह पर्व हर प्रकार से बहुत ही महत्वपूर्ण है।

हरिबोधनी एकादशी की कथा

इस पर्व के बारें में हमारे धर्म ग्रंथो में अनेक कथायें एवं कथान मिलते हैं। जिसमें कुछ इस प्रकार संक्षिप्त रूप में हैः जब एक बार माँ लक्ष्मी जी ने श्री हरि विष्णू से कहा कि हे प्रभु! आपके सोने तथा जगने का क्रम बहुत ही लंबा होता है। जिससे आप कई दिनों और रातों तक लगातार जगते हैं। और यदि सो गये तो हजारों लाखों वर्षों यानी कई कल्पों तक सोते रहते हैं। आपकी लंबी निद्रा जो कल्प एवं कल्पान्तरों तक चलती हैं। उस समय प्राणी एवं जगत नष्ट हो जाते हैं। इस समस्त सचराचर जगत में प्रयलकाल आ जाता है। इसलिये हे! स्वामी आप नियमित रूप से प्रतिवर्ष शयन किया करें। जिससे मुझे और देवगणों को कुछ विश्राम का समय प्राप्त हो जायेगा। माँ जगत् जननी की बात सुनकर जगपति श्री विष्णू मुस्कुराये और बोले हे देवी! तुम ठीक कह रही हो इस बात पर भगवान सहमत होकर बोले ठीक है देवी मै प्रतिवर्ष चार महीनों तक शयन का विधान का करुंगा। हे देवी! इस अल्प निद्रा मे मेरे भक्त जो उत्सव एवं मंगलगान करेंगे तथा विधि विधान से मेरी पूजा अर्चना करेंगे। तथा मेरे उठने पर उत्सव करेंगे। उनके लिये यह पर्व परम कल्याणकारी एवं पुण्यफल देने वाला होगा। जो भक्त जितना श्रद्धा भक्ति से मेरे उत्सव को मनायेगा। उसी के अनुसार उसके यहाँ धन एवं सम्पदा तथा सुख शांति एवं देव भक्ति स्थापित होगी। इस प्रकार श्री नारायण ने माँ लक्ष्मी को बताया था। तब से यह पर्व आज तक पूरे उत्साह एवं उत्सव के रूप में मनाया जाता है। इस एकादशी के संबंध में दूसरी कथा संक्षिप्त रूप से इस प्रकार है। एक राजा के यहाँ सभी मनुष्यों के अलावा पशुओं को भगवान की भक्ति के कारण अन्न का सेवन नहीं करने दिया जाता था। किन्तु राजा का एक नौकर जिसे एकादशी के दिन अन्न नहीं देने के शर्त में नौकरी मे रखा गया था। किन्तु उसे जैसे इस तिथि में फलाहार दिया गया तो वह बड़े ही दया भाव से राजा से कहने लगा कि मै बिना अन्न के अपने प्राणों की रक्षा नहीं कर सकूंगा। जिससे राजा ने उसे अन्न दे दिया तो उसने भगवान को बड़े ही भक्ति भाव से उसे अर्पित किया तो भगवान उसके बनाये हुये प्रसाद को खाकर अपने लोक को चले गये। जिससे उसने पुनः एकादशी के अवसर पर राजा से अधिक भोजन की माँग रखी और कहा कि उसके साथ भगवान भी भोजन पाते हैं। इस बात पर राजा को यकीन नहीं हो रहा था तो राजा ने उसके भोजन तैयार होने तक छिपकर देख रहा था जिससे भगवान वहाँ नहीं आ रहे थे। किन्तु भक्त के आग्रह वश उन्हें आना पड़ा और उस भक्त का उद्धार भी करना पड़ा। आदि प्रकार की कथायें इस एकादशी के व्रत में प्रचलित हैं। इसी प्रकार एकादशी के व्रत का भक्ति पूर्वक पालन करने वाले राजा की कहानी है। कि वह अपने राज्य में किसी को भी एकादशी तिथि में अन्न बेचने का आदेश नहीं देता था। क्योंकि वह भगवान की भक्ति में विश्वास रखता था। इसलिये किसी को भी इस तिथि में अन्न ग्रहण एवं बेचने की इजाजत नहीं थी। जिसकी परीक्षा भगवान ने एक मोहक स्त्री का रूप धारण करके लिया था। उसमें वह सफल रहा और भगवान ने उसका उद्धार किया था।

हरिबोधनी एकादशी है विशेष

यह पर्व कई मायनों में विशेष होता है। क्योंकि इस अवसर पर श्री हरि के निमित्त व्रत के दिन घर आंगन को विविध प्रकार से सजाकर चौक को पूरकर श्री हरि के स्वरूप का चित्रण अपने-अपने स्तर पर लोग करते हैं। कई स्थानों में भगवान के चरणों को बनाने या फिर उनके चरणों का स्मरण करके चरण पादुकायें रखी जाती हैं। या फिर उनकी प्रतिमा को रखकर रात्रिकाल में विशेष पूजन का विधान होता है। तथा भगवान के सन्मुख विविध प्रकार के पकवानों को रखकर फल, मेवे गन्ना आदि भगवान को समर्पित करते हैं। या फिर गन्ने से उनका मण्डप तैयार किया जाता है। तथा चौकी में भगवान की प्रतिमा को स्थापित किया जाता है। और उन्हें विविध प्रकार के व्यंजनों को अर्पित किया जाता है। तथा घर एवं मन्दिरों में श्रद्धालुओं के द्वारा अखण्ड दीपक भी जलाया जाता है। इस एकादशी के व्रत का बहुत ही महत्व होता है। अतः व्रत का पालन करना चाहिये। तथा भगवान को जगाते हुये कहना चाहिये कि आप इन्द्र, अग्नि, ब्रह्म, रूद्र, कुबेर आदि देवताओं के द्वारा पूजे जाते हैं। हे नाथ! आप हमारी विनय को सुनकर सुख पूर्वक उठे और जो हमने श्रद्धा भक्ति द्वारा जो आपके लिये प्रसाद अर्पण किये हैं, उन्हें ग्रहण करें। इस दिन कई स्थानों में प्रातःकाल लोग नगर भ्रमण करते हुये श्री हरि का कीर्तन एवं भजन करते हैं। क्योंकि आज सम्पूर्ण विश्व में अशान्ति एवं अनाचार हिंसा आदि की वृद्धि हो रही है। जिसे शान्त करने के लिये सिर्फ ईश्वर की भक्ति एवं कृपा बहुत ही सहायक होती है। कुछ लोगों का स्पष्ट तौर पर कहना है कि यह दीपोत्सव की सम्पन्नता का प्रतीक है।

हरिबोधनी एकादशी एवं तुलसी का महत्व

वैसे तुलसी का हमारे जीवन में जहाँ अध्यात्मिक रूप से महत्व है, वहीं औषधीय दृष्टि ये बड़ा ही व्यापक महत्व होता है। इसी महत्व को दर्शाते हुये इसे श्री हरि विष्णू से जोड़ा गया है। और लोग इसके महत्व को समझते हुये कार्तिक माह की श्री हरि प्रबोधनी एकादशी को श्री हरि से विष्णू से विवाह पूरे रीति रिवाजों एवं विधि विधानों से करते हैं। वैसे तुलसी के संदर्भ में अनेकों कथानक उपलब्ध होते हैं।

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श्री हरिबोधनी या देवोत्थान एकादशी और पद्मा एकादशी व्रत

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