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विक्रमी संवत्सर

Published On : July 12, 2020  |  Author : Astrologer Pt Umesh Chandra Pant

विक्रमी संवत्सर अथवा हिन्दू नववर्ष

यह भारत भूमि के हिन्दू पचांग का सुप्रसिद्ध विक्रम संवत्सर है। जो प्रति वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ होता है। जिसका आगमन पूरे हिन्दूस्तान में खुशी का प्रतीक होता है। इसे लेकर समूचा जनमानस बड़ा ही उत्सुक रहता है। जिससे यह एक पर्व की तरह बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है। इस अवसर पर लोगों में एक दूसरे को बधाई संदेश भेजने का सिलसिला जारी रहता है। और आपस में मिलजुल कर इस पर्व को बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। वहीं ज्योतिषशास्त्र के ज्ञाता व पचांग का गणित करने वाले इसके विविध फल कथनों को समझाने तथा इसका जन सामान्य के उपर कैसा प्रभाव रहेगा। इस बारे में अपनी गणनाओं व संवत्सर के स्वामी ग्रह, उसके वार तिथि आदि के बलाबल एवं विचारणीय पहलुओं के बारे में अध्ययन करके। विक्रमी संवत् के सटीक फल कथन को कहते हैं। क्योंकि सम्पूर्ण वर्ष में होने वाली घटनाओं वर्षा, भूकम्प, आंधी, तूफान, सर्दी, गर्मी तथा फसल का उत्पादन आदि का संबंध इस समूचे संवत्सर से जुड़ा हुआ होता है। जिससे समूचा जन मानस सुखी एवं दुःखी होता है। कब व्यक्ति इस संसार में दुःख के भवंर में फस जायेगा और कब उसे सुख प्राप्त होगा। कब संबंधों में प्रेम व चाहत रहेगी एवं कब तक शरीर निरोग रहेगा। तन की सुन्दरता एवं मन की सबलता रोग-निरोग व जीवन-मृत्यु आदि घटनों का संबंध एक निश्चित क्रम से शुरू होता है। जिसमें विक्रमी संवत्सर वार्षिक गणनाओं का मूलभूत अंग है। सृष्टि के सृजन एवं संचालन में अपनी भूमिका निभाने वाले परम पिता बह्मा जी ने सनातन यज्ञ, सूर्य, चंद्र, आदि ग्रह नक्षत्र एवं उपग्रह की लगातार गतिशीलता को बनाये रखने के लिये जो गणनाओं का अनवरत क्रम चला रखा है उसमें संवत्सर, प्रमुख है।

विक्रमी संवत्सर का उदय

प्राचीन काल गणना एवं हिन्दू रीति के अनुसार ज्योतिष के गणित को साधने के लिये जिन सूक्षम काल गणना का प्रयोग किया जाता है तथा जिनसे संवत्सर का निर्माण होता है उसमें प्रमुख एवं सूक्ष्म घटक इस प्रकार से है जैसेः त्रुटि, लव, निमेष, काष्ठा, कला एवं विकला, घटी तथा पल, विपल, मुहुर्त और होरा होता है। इसी प्रकार तीस मुहुर्त के योग से एक दिन-रात, तीस दिन-रात की संख्या से एक माह निर्मित होता है और दो मासों के योग से एक ऋतु निर्मित होती है। तथा तीन ऋतु अर्थात् छः मासों के योग से एक अयन इसी प्रकार दो अयन को जोड़ने से एक वर्ष यानी संवत्सर का निर्माण होता है। यानी कई गणनाओं के घटकों से संवत्सर का उदय होता है। विक्रमी संवत के प्रचलन के बारे में अलग-अलग मत प्राप्त होते हैं। जिसमें कुछ लोग इसे ईसवी सन् 78 एवं और कुछ लोग 544 में इसका प्रारम्भ मानते हैं। महाराजा विक्रमादित्य के काल से पंचाग विकसित हो गये थे। जिसके द्वारा किये गये कामों का लेखा जोखा बड़ी ही सरलता के साथ किया जाता था। किस वर्ष कौन से समान व भिन्न कामों को किया गया इसे प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करने और कामों को सही ढंग करने के लिये यह विक्रमी संवत नववर्ष के रूप में प्रचलित हुआ। जिसमें  7 दिनों को एक सप्ताह और 12 महीनों के योग को वर्ष की संज्ञा दी गई है। विक्रमी संवत से पूर्व 6676 ईसवी पूर्व से शुरू हुए सप्तर्षि संवत को सबसे प्राचीन कहा गया है।

विक्रमी संवत्सर की कथा

विक्रमी संवत्सर क्या है ? तथा यह कैसे हिन्दू गणनाओं के वार्षिक क्रम का हिस्सा बना इसके पीछे कौन सी कथा प्रचलित है। तो इस संबंध में स्कंद पुराण में वर्णन मिलता है। इसी प्रकार भविष्य पुराण भी इस संदर्भ की कथा को अपने में समाहित किये हुये है। जिसका उल्लेख इस प्रकार है कि कलियुग के लगभग 3,000 वर्ष बीतने के पश्चात्  शकों का अत्याचार जब धरती पर बढ़ने लगा तब भक्तों के विनय पर भगवान शंकर ने धर्म की रक्षा एवं आर्य धर्म की उन्नति के लिये पृथ्वी पर विक्रमादित्य नाम के बहुत ही बलशाली एवं प्रतापी राजा के जन्म का वरदान दिया। जिससे वह बालक अपने बचपन से बढ़ा ही प्रभावशाली एवं अद्वितीय था। वह माता-पिता की आज्ञा को मानने वाले ईश्वर एवं गुरू भक्त उच्च कोटि के धार्मिक एवं नीति में निपुण तथा राजकार्य में उत्कृष्ट भूमिका निभाने वाले, धर्म की रक्षा करने वाले बड़े ही कुशाग्र बुद्धि के थे। बालक विक्रामादित्य के उत्कृष्ट बुद्धि की परिपक्वता की परीक्षा देवी पार्वती ने लेने के लिये एक वैताल को नियुक्त किया जो तरह-तरह के कथा संवाद सुनाकर उनसे प्रश्न करता और राजा विक्रमादित्य उनके सटीक उत्तर देकर उसे स्तब्ध कर देते थे। जिनकी कथायें आज भी विक्रम बैताल के नाम से विख्यात है। यह ऐसी कथायें है जो राजनीति एवं न्याय आदि के क्षेत्रों में लोगों के लिये प्रेरणाप्रद है। राजा विक्रमादित्य ने अधर्म और अत्याचार को पराजित करके धरती पर धर्म को स्थापित किया है। इसी विजयोत्सव के उपलक्ष्य में विक्रम संवत्सर की स्थापना हुई है। जो आज भी अपनी लोकप्रियता को जनमानस के मध्य बनानये हुये हैं। ईस्वी सन को विक्रमी संवत्सर में बदने के लिये उसमें 57 जोड़ देने से जो योग होगा वही वर्तमान विक्रमी संवत होगा। इसी प्रकार क्राइस्ट के जन्म के 78 वर्ष के पश्चात् शालिवाहन नाम के अत्यंत प्रतापी राजा का जन्म हुआ था। जिसके नाम से शालिवाहन-शकाब्द की शुरूआत हुयी थी। इसके अतिरिक्त समयानुसार और कुछ महापुरूषों एवं अवतारों की स्मृति में देश व एवं प्रदेश की परिस्थिति के अनुसार संवत्सर प्रचतिल थे। जैसे- श्रीकृष्ण संवत्सर, कलि संवत्सर, भगवान बुद्ध संवत्, हिजरी संवत्सर, फसली संवत्सर, नानकशाही संवत्सर, खालसा संवत्सर आदि संवत्सरों का प्रचलन था। परन्तु आज क्रिश्चियन (ईस्वी सन्) ही अधिक लोगों को मध्य चल रहा है।

संवत्सर के राजा और मंत्री महत्व

ज्योतिषशास्त्र की रीति के अनुसार एवं प्रचलित मान्यताओं के आधार पर नूतन संवत्सर का प्रारम्भ तथा उसके राजा एवं मंत्री के लिये कौन योग्य है। तथा किसे पदस्थ किया जायेगा। तथा उसका क्या महत्व है। इस संबंध में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से निर्णय होता है। यानी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को जो वार होगा। उसी से संबंधित ग्रह ही नव संवत् का राजा होता है। इस वर्ष नव विक्रमी संवत् 2077 चैत्र शुक्ल प्रतिपदा अर्थात् बुधवार के दिन 25 मार्च 2020 से प्रारम्भ होगा। यानी प्रमादी नामक संवत् होगा जो वर्ष पर्यन्त सभी कर्मकाण्डों मे संकल्पादि के समय बोला जायेगा। तथा नवसंवत् 2077 के मंत्री पद पर श्री चन्द्रमा आसीन रहेंगे।

संवत्सर के फल और उसका महत्व

इस नव विक्रमी संवत 2077 में प्रमादी नामक संवत होगा। जो कि सभी तरह के फसलों एवं धान्यों के उत्पादन हेतु अच्छा रहेगा। जिससे सभी धान्यों एवं सफलों को बहुतायत में लोग प्राप्त करेंगे। यानी जरूरतों के अनुसार फसले एवं धान्य मिलते रहेंगे। जिससे लोग खुश रहेंगे। उत्पादकों को अच्छे मूल्य मिलेंगे। ऐसे संकेत इस नव विक्रमी संवत मे प्राप्त हो रहे हैं। राजनीतिज्ञों की आपसी शत्रुता एवं द्वेष भावना के होने से उत्पात एवं आम जनों में कुछ भय का माहौल बना हुआ रहेगा। इसके अतिरिक्त इस वर्ष के पदाधिकारी भी बहुत ही महत्वपूर्ण है। इस वर्ष के दश पदधारक प्रभावशाली अधिकारियों में बुध राजा है, जिससे लोग धन धान्य से सम्पन्न होते है। धरती में अच्छी वर्षा की स्थिति होने से फसलों की अच्छी पैदावार की स्थिति बनी हुई रहती है। जिससे लोगों में धर्म दया व परोपकार की स्थिति होती है। अन्य मतानुसार लोग एक दूसरे को ठगने का कार्य अर्थात् छलकपट से कार्य करते है। एवं साधु संतों का वर्चस्व बना हुआ रहता है। इस संवत् के मंत्री चन्द्रमा है। जिससे देश में सुख-सुविधायें और खुशहाली की स्थिति बनी हुई रहती है। वर्षा अनुकूल होने से अच्छी पैदावार की स्थिति बनी हुई रहती है। सस्येश गुरू से धर्म कर्म के शुभ आचरण से सुख-शान्ति की स्थिति बनी हुई रहेगी। धान्येश मंगल जहाँ सफलों की पैदावार के लिये अच्छा रहेगा। वहीं अग्नि भय हिंसा व चोरी आदि की घटनायें होती हैं। मेघेश सूर्य होने से इस वर्ष यानी वर्षा के स्वामी श्री सूर्य हैं। जिससे फसलों की अच्छी पैदावार एवं अच्छी वर्षा के योग बने हुये रहेंगे। किन्तु कहीं- कहीं वर्षा में कमी के आसार भी रहते हैं। रसेश शनि होने से उपयोगी एवं अनुकूल वर्षा की कमी बनी हुई रहती है। नीरेस गुरू होने से ठोस पदार्थो के मूल्यों में वृद्धि बनी हुई रहती है। एवं फलेश सूर्य होने से धरती में कई तरह के फलों का उत्पादन कहीं पर अधिक और कहीं पर कमतर बना हुआ रहेगा। तथा धनेश बुध होने से लोगों के कोष में वृद्धि होती तथा धार्मिकता की स्थिति और अच्छी रहती है। जिससे यज्ञ अनुष्ठानों की स्थिति बनी हुई रहती है। इस वर्ष दुर्गेश यानी सेनापति भगवान सूर्य हैं। जिससे सेनायें निर्भीक एवं साहस के कामों को अंजाम देने में सफल होती है। तथा शासक व प्रशासक पूरे आत्मविश्वास के साथ अपने कामों को करने में जुटे हुये होते हैं।

संवत्सर का ज्योतिषीय महत्व

इस प्रकार नव संवत् जहाँ ज्योतिष की गणनाओं में विशेष महत्वपूर्ण है। वहीं ज्योतिष की दृष्टि से फल कथन करने और समय रहते उसका सही अनुमान लगाने का काम ज्योतिष के द्वारा ही सिद्ध हो पाता है। क्योंकि विक्रमी नव संवत् के आते ही वर्ष के पदाधिकारियों के शुभ एवं अशुभ प्रभाव से जहाँ धरती में वर्षा, फसलों की पैदावार, तथा विभिन्न प्रकार के राजनैतिक व सामाजिक वातावरण में बदलाव होता है। वहीं जन जीवन पर इसका व्यापक असर दिखता है। क्योंकि अवर्त आदि मेघ जो चतुर्मेघ हैं। उनके अनुसार धरती में वर्षा होती है इस वर्ष आवर्त नामक मेघ के कारण कुछ क्षेत्रों में वर्षा की भारी कमी एवं दुर्भिक्ष जैसी स्थिति बनेगी । इस प्रकार वर्ष पर्यन्त घटने वाली घटनाओं एवं कीट पतंगों का आक्रमण आदि का विस्तृत विचार नववर्ष विक्रमी सवंत् के आने से होता है। अतः नववर्ष विक्रमी संवत बहुत ही महत्वपूर्ण है।

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